बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-2 - गृह विज्ञान बीए सेमेस्टर-2 - गृह विज्ञानसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-2 - गृह विज्ञान
अध्याय - 7
संसाधन, निर्णयन प्रक्रिया एवं परिवार जीवन चक्र
(Resources, Decision Making and Family Life Cycle)
व्यवस्था की परिभाषा में साधनों का महत्व स्पष्ट रूप से दृष्टिपात होता है - अपने उपलब्ध साधनों के उपयोग द्वारा ही कोई व्यक्ति या परिवार अपने निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति करता है। इस प्रकार व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण चरण होता है साधनों का संगठन करना और उसे गतिशील बनाना। यह चरण गृहणी को क्रिया करने और बनाई गई योजना को पूर्ण करने में सहायक होता है। इन साधनों को अनगिनत तरीकों से उपयोग में लाकर व्यक्ति या समूह अपने लिए महत्वपूर्ण उद्देश्यों को प्राप्त करता है। प्रभावशाली व्यवस्थापन का उद्देश्य होता है पारिवारिक साधनों को इस प्रकार उपयोग करना ताकि परिवार को अधिकतम सन्तोष की प्राप्ति हो सके। यहाँ ये प्रश्न उठता है कि व्यवस्था क्रियात्मक शब्द है या अक्रियात्मक किन्तु अधिकांश व्यक्ति इस बात से सहमत हैं कि व्यवस्था क्रियात्मक है क्योंकि कोई व्यक्ति किसी चीज की व्यवस्था करता है अर्थात् साधनं की व्यवस्था करता है।
स्मरण रखने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य
• मानवीय साधन - मानवीय साधनों में वे साधन सम्मिलित होते हैं, जिनका गृह प्रबन्ध में मनुष्य से सम्बन्ध रहता है। ये साधन सामान्यतः अदृश्य व अमूर्त होते हैं। प्रमुख मानवीय साधन निम्नलिखित हैं: -
(i) योग्यता एवं कुशलता
(ii) शक्ति
(iii) समय
(iv) ज्ञान
(v) अभिवृत्तियाँ
• अमानवीय साधन भौतिक साधन भी कहलाते हैं। मानवीय साधनों की भाँति ये साधन भी अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। इन साधनों की सहायता से केवल भौतिक वस्तुओं को ही क्रय किया जा सकता है। ये साधन निम्नलिखित हैं-
(i) धन
(ii) वस्तुएँ तथा सम्पत्ति
(iii) सामुदायिक सुविधाएँ
• वर्तमान में भौतिक वस्तुओं की व्यवस्था बहुत जटिल समस्या है। इसका पहला कारण है कि इसके अन्तर्गत सेफ्टीपिन से लेकर कार वस्त्र तन्तु से लेकर लिनोलियम परिधान से लेकर पेन और पेन्सिल और शीघ्र नष्ट होने वाली वस्तुओं से लेकर पुरानी पुस्तकें तक सम्मिलित होती हैं। सामान्यतः प्रत्येक परिवार की वस्तुओं हेतु विभिन्न प्रकार की जानकारी की आवश्यकता होती है। तब भी समस्या होती है जब तक एक ही पदार्थ की दो वस्तुएँ बनी होती हैं जैसे ऊनी कम्बल और ऊनी गलीचा या एक ही उद्देश्य की वस्तुएँ दो विभिन्न प्रकार की बनी होती हैं जैसे स्वेटर ऊनी तन्तुओं का बना हो और लान का बना हो। दूसरा कारण है पदार्थों में तीव्रता से परिवर्तन होते हैं नए-नए आविष्कारों के कारण प्रतिदिन नई वस्तुएँ उपलब्ध होती हैं जिनके सम्बन्ध में नए ज्ञान की आवश्यकता होती है।
• साधनों का महत्व तभी होता है जब उनका उपयोग सम्भव हो । साधनों की उपयोगिता तभी सम्भव है जब किसी लक्ष्य प्राप्ति में इसका उपयोग किया गया हो। कई पदार्थ यदि नए होते हैं तो उनका उपयोग करके देखा जाता है।
• सभी साधनों की ये विशेषता होती है कि वे सीमित होते हैं। व्यवस्था का महत्व इसलिए है कि साधन सीमित होते हैं।
• गणनात्मक सीमितता (Quantitative Limits) साधनों की सीमितता अलग-अलग साधनों में कम अधिक होती है। इसकी गणना की जा सकती है ।
• समय सबसे अधिक महत्वपूर्ण सीमित साधन है क्योंकि दिन में केवल 24 घण्टे ही होते हैं।
• शक्ति साधन भी सीमित हैं और साधन के रूप में भिन्न है कि प्रत्येक व्यक्ति में शक्ति की मात्रा में भिन्नता पाई जाती है।
• धन की सीमितता की गणना स्पष्ट रूप से की जा सकती है। धन साधन व्यक्तियों में भिन्न-भिन्न रूप में पाया जाता है ।
• साधनों के उपयोग का सर्वप्रथम सिद्धान्त लक्ष्य निर्धारित करना । परिवार अपने मूल्यों के सन्दर्भ में परिवार के सदस्यों की आवश्यकतानुसार लक्ष्य निर्धारित करता है और फिर उसके प्राप्त करने की दिशा में साधनों का उपयोग करता है।
• लक्ष्य निर्धारित करने के पश्चात् उसे प्राप्त करने हेतु साधनों के उपयोग की योजना बनाई जाती है। योजना बनाते समय उपलब्ध साधनों पर विचार किया जाता है।
• साधनों को एकत्रित करना (Collect a Resources)- योजना बनाने के पश्चात् योजना के अनुरूप साधनों को एकत्रित किया जाता है। न केवल भौतिक साधन वरन् मानवीय साधनों को भी एकत्रित करके कार्य किया जाता है।
• महत्व के क्रम के अनुसार स्थापित करना (Establish According to its Importance) - साधनों को एकत्रित करने के पश्चात् उनके महत्व के क्रम में व्यवस्थित किया जाता है। परिवार के कुछ साधन अधिक मात्रा में होते हैं कुछ कम । साधनों की उपलब्धता सीमितता व महत्व के अनुसार उनके उपयोग का क्रम स्थापित किया जाता है।
• निरीक्षण करना (Checking) - योजना का निरीक्षण किया जाता है कि लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु सभी साधनों का ठीक तरह से उपयोग किया गया है या नहीं। यदि साधनों के उपयोग की योजना में कोई त्रुटि रह जाती है तो उस पर पुनः विचार किया जाता है।
• साधनों से प्राप्त सन्तुष्टि बढ़ाने हेतु सुझाव साधनों के उपयोग का महत्वपूर्ण उद्देश्य है कि साधनों से अधिकतम सन्तुष्टि प्राप्त करना। एलिजाबेथ ह्याट ने इस सम्बन्ध में चार सुझाव दिए हैं जिनसे साधनों द्वारा अधिकतम सन्तोष प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार हैं-
1. साधनों की पूर्ति में वृद्धि करना (To increase Supply of Resources)
2. वैकल्पिक उपयोगों का ज्ञान (Knowing Alternate Uses)
3. साधनों के उपयोग में वृद्धि करना (Increasing Utility)
4. साधनों के चुनाव के मध्य सन्तुलन स्थापित करना (Balancing of Choices Among Resources)
• साधनों की योजना इस प्रकार बनाई जानी चाहिए ताकि उसके उपयोग में मितव्यियता लाई जा सके।
• साधनों का वितरण इस प्रकार करना चाहिए जिससे परिवार किसी लक्ष्य की प्राप्ति हेतु उसका समुचित उपयोग कर सके ।
• साधनों के पूर्ण उपयोग के लिए साधनों को आपस में सम्बन्धित कर तब उनका प्रयोग करना चाहिए।
• साधनों का व्यय करते समय प्रतिस्थापन के नियम को ध्यान में रखना चाहिए ।
• साधनों का व्यवस्थापन तथा उपयोग इस प्रकार करना चाहिए जिससे परिवार का प्रत्येक सदस्य स्वयं अपना विकास कर सके।
• किसी भी साधन के साथ केवल एक विशेष प्रयोग को ही नहीं जोड़ना चाहिए बल्कि एक साधन के प्रयोग की अधिक से अधिक जितनी सम्भावनायें हों उन्हें प्रयोग करना चाहिए।
• निकल तथा डोर्सी के अनुसार, "निर्णय लेना, एक समस्या को हल करने अथवा परिस्थिति का सामना के लिये अनेक संभावित विकल्पों में से किसी एक कार्य दिशा का चयन करना है।"
• मैलॉक तथा डीकन के अनुसार, “निर्णय लेना अथवा विकल्प का चयन करना, क्रिया के विभिन्न क्रमों में से किसी एक क्रम को चुनना अथवा किसी को भी न चुनना है।'
• डैननबॉय के अनुसार, "मानवीय व्यवहार चेतन अथवा अचेतन प्रक्रियाओं का परिणाम है। जब यह क्रियायें चेतन मन से होती है तो निर्णय लेने की प्रक्रिया होती है।"
• अन्तर्राष्ट्रीय शब्दकोष के अनुसार, "निर्णय विचार करने के बाद प्राप्त किया संकल्प अथवा परिणाम है।"
• ग्रॉस तथा फ्रेंडल के अनुसार, "निर्णय लेना अथवा विकल्प का चयन करना, क्रिया के विभिन्न क्रमों में से किसी एक क्रम को चुनना अथवा किसी को भी न चुनना है।'
• निर्णय लेने की प्रक्रिया चरण (सोपान) - निर्णय लेने की प्रक्रिया के विभिन्न चरणों (सोपान) निम्नलिखित हैं-
1. एक विकल्प का चयन करना
2. समस्या का विवेचन
3. विभिन्न विकल्पों को खोजना
4. उत्तरदायित्वों को वहन करना
• पारिवारिक जीवन चक्र को मुख्यतः तीन विस्तृत अवस्थाओं में बाँटा गया है, ये अवस्थाएँ हैं
(1) प्रथम अवस्था (प्रारम्भिक अवस्था ) - पारिवारिक जीवन चक्र की पहली अवस्था "प्रारम्भिक अवस्था" कहलाती है जिसे 'स्थापत्य काल' भी कहते हैं। इसमें दो भिन्न-भिन्न परिवारों, संस्कृतियों, जीवन-दर्शन, मूल्य से आये वयस्क स्त्री-पुरुष परिणय सूत्र में आबद्ध होकर एक परिवार का निर्माण करते हैं। प्रथम अवस्था का शुभारम्भ विवाह के बाद होता है तथा प्रथम शिशु के आगमन के साथ ही समाप्त हो जाता है।
(2) द्वितीय अवस्था (विस्तृत अवस्था ) - "विस्तृत परिवार की अवस्था है।' इसे 'वृद्धि की अवस्था' भी कहते हैं। यह पारिवारिक जीवन चक्र की सबसे महत्त्वपूर्ण अवस्था है। परिवार में प्रथम शिशु के आगमन होते ही यह अवस्था प्रारम्भ हो जाती है। विस्तृत परिवार की अवस्था सभी अवस्थाओं से अधिक लम्बी एवं खर्चीली होती है। यह अवस्था लगभग 20-25 वर्ष तक चलती है।
(3) तृतीय अवस्था (संकुचित परिवार ) - संकुचित परिवार की अवस्था' पारिवारिक जीवन चक्र की तीसरी अवस्था कहलाती है। इस अवस्था में माता-पिता बच्चों को शिक्षा-दीक्षा देकर उन्हें योग्य बना देते हैं। बालक आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी एवं आत्मनिर्भर हो जाता है। अब उनकी शादियाँ कर दी जाती हैं।
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